विज्ञान भैरव तंत्र – सूत्र – 87 & 88
ध्यान या मैडिटेशन में ज्यादात्तर कहा जाता है कि आँख बंद कर मैडिटेशन करें | यह सूत्र कहता है कि आँखें बंद करना या रखना ही काफी नहीं है यहाँ यह सूत्र असल में कहना चाहता है कि सोच भी आँख के साथ बंद हो जानी चाहिए जो की ज्यादात्तर नहीं हो पाती है |
हमें इन आँखों से बाहर देखने की आदत पड़ चुकी है क्योंकि हमें पैदायश से यही सीखाया और बताया गया है | कभी किसी ने कहा या बताया या समझाया ही नहीं कि इन आँखों से अपने अंदर भी देखा जा सकता है | यदि हम इन आँखों को अपने अंदर की ओर मोड़ पायें तो जीवन की लगभग सारी मुश्किल और परेशानी खत्म हो जायेंगी |
पहले सूत्र में अमावस की रात को उस समय ध्यान धरने को कहा गया है जब काफी देर से बारिश हो रही हो | यह सूत्र आज के शहरी जीवन में व्यवहारिक नहीं लगता | हाँ, पहाड़ों में रहने वाले यह कर सकते हैं |
दूसरा सूत्र व्यवहारिक है कि हम अँधेरी रात यानि पाँच से सात दिन अमावस आने से पहले और पाँच से सात दिन अमावस के बाद के दिनों में आसमान को देखते हुए या सामने की ओर अँधेरे को देखते हुए ध्यान करें या फिर कमरे में लगभग अँधेरा कर, करें |
दोनों सूत्र में बताई गई विधि के अनुसार ध्यान के बारे में बताने से पहले वह जानते हैं कि यह सूत्र हमें क्या संदेश देना चाहते हैं ? संदेश समझ आ गया तो सूत्र में बताई विधि को करने में आसानी होगी |
पैदाइश से लेकर मृत्यु तक हम द्वैत यानि dualism यानि दो होने के भाव या अवस्था में ही जीवन जीते हैं | जबकि आध्यात्म अद्वैत यानि non-dualism यानि एक का भाव या अवस्था पर टिका हुआ है | हम जब बंद आँख खोलते हैं तो हम अपने इलावा भी सब कुछ देखते हैं | इस अपने से इलावा देखने को द्वैत कहते हैं जबकि आध्यात्म कहता है कि सब एक है, यहाँ तक कि हम और ईश्वर भी एक है | आध्यात्म यह इसलिए कहता है क्योंकि आध्यात्मिक सोच इस पर टिकी है कि सारा संसार एक मिथ्या या माया है | आज का आधुनिक विज्ञान भी अब मानने लगा है कि हम जिसे छूते या महसूस या देखते हैं वह असल में है ही नहीं |
आध्यात्म कहता है कि हमारी सारी परेशानी या मुसीबत की जड़ ही यह द्वैत भाव है | असल में देखा जाए तो बात भी सही लगती है | वह मेरे से सुंदर है, वह पैसे वाला है, उसने मुझे ये कहा, वह मुझ से प्रेम नहीं करता इत्यादि…..इत्यादि | यहाँ तक कि हम दर्पण में भी अपना रूप देख परेशान हो जाते हैं या खुश हो जाते हैं | दर्पण में अपने आप को देखना भी द्वैत भाव है | यदि दर्पण न होता तो हम अपना रूप देख ही नहीं पाते तो आधी से ज्यादा परेशानी खत्म हो जाती |
हम हर दूसरे के कारण दुखी और परेशान हैं | इस कारण हम अपने शरीर, भाव, सोच को देख ही नहीं पाते | हम अपने इलावा हर किसी को समझाने, दिखाने और बताने निकल पड़ते हैं जबकि हम अपने शरीर, भाव या सोच को कण्ट्रोल नहीं कर सकते हैं | यदि यह द्वैत भाव न हो तो हम अपने पर ही हमेशा ध्यान केन्द्रित रखेंगे | यदि ऐसा हो जाए तो हम हर किसी से प्रेम करेंगे, हर किसी की ख़ुशी में शामिल होंगे, हर किसी की तरक्की में ख़ुशी-ख़ुशी उसका साथ देंगे क्योंकि जो हम हैं वह दूसरा भी तो वही है | शायद इसीलिए जितने भी आध्यात्मिक लोग थे वह हर हाल में खुश रहते थे और उनके चेहरे पर तेज इसीलिए था कि वह सिर्फ और सिर्फ अपने अंदर के भाव से दूसरे को देखते थे |
बचपन से हमें अँधेरे से डराया जाता है और यही कारण है कि बहुत से लोग अँधेरे में जाने से घबराते हैं | बहुत लोग अँधेरे कमरे में सोने तक से कतराते हैं | क्योंकि हमें द्वैत में रहने की आदत पड़ चुकी है इसीलिए हम अद्वैत से घबराते हैं | हमे अँधेरे में भूत होता है या आ जाता है ऐसा बचपन से बोला गया है | असल में ऐसा होता भी है क्योंकि वह भूत, वह भूत नहीं होता जो हमें बताया गया है बल्कि वह हमारा ही असल रूप है क्योंकि अँधेरे में हम नहीं होते | सब कुछ होता है लेकिन हो कर भी नहीं होता और यहाँ तक कि हम भी नहीं होते |
जब भी अँधेरा होता है तब हम अँधेरे को नहीं भगाते बल्कि रौशनी को लाते है यानि बल्ब या दिया जलाते हैं | प्रकाश होते ही अँधेरा स्वयमेव भाग जाता है | हमारे आस पास बहुत कुछ है जो प्रकाश होने पर प्रतिबिंबित हो दिखता है | आप यदि सौरमंडल से बाहर, ब्रह्माण्ड की यात्रा पर निकलें तो आपको चारों ओर सिर्फ और सिर्फ अँधेरा दिखेगा | यदि कोई प्रकाश की किरण आपके आस पास से निकल भी जाए तो भी आपको नहीं दिखेगी क्योंकि आपके आस पास कुछ है नहीं जो प्रतिबिम्ब रूप में प्रकाश आपको दिखा सके | कहने का तात्पर्य है कि प्रकाश की भी एहमियत तभी है जब आपके आस पास कुछ है जिसे प्रकाश प्रतिबिम्ब में दिखा पाए वरना प्रकाश होने बावजूद भी वह अँधेरे के बराबर है |
दोनों सूत्र का संक्षेप में संदेश यह है कि अँधेरा, शून्य का प्रतीक है जिसे इस विधि द्वारा बहुत आसानी से पाया जा सकता है | यह सूत्र हमें बताना चाहता है कि चाहे हम द्वैत में जीने के आदि हो चुके हैं इसके बावजूद भी हमें अँधेरे में ही सकून मिलता है, नींद आती है और आनन्द की प्राप्ति होती है |
आइये अब इस सूत्र में बताई गई विधि कैसे करनी है, वह जानते हैं :
आप यह विधि रात के समय कभी भी कर सकते हैं | अच्छा रहेगा कि रात को ग्यारह या बारह बजे के बाद करें या फिर सुबह चार या पाँच बजे करें | हमारी राय में सब से अच्छा समय, सुबह, सूर्य उदय से पहले का है यदि आप कर पायें | रात को यह विधि करने के दो मुख्य कारण है कि रात को अँधेरा होता है और दूसरा चारों तरफ शांत माहौल होता है जोकि इस विधि के लिए जरूरी है |
आप जिस भी कमरे में करें, वहाँ बाहर से प्रकाश न आये इसका ख़ास ध्यान रखें | आपके कमरे में बहुत हल्का यानि लगभग न के बराबर प्रकाश होना भी जरूरी है और वह भी आपकी पीठ की तरफ हो | आप कोई ऐसा बल्ब जलाएं जिसका प्रकाश बहुत ही हल्का हो यानि कमरे में रखी वस्तु न के बराबर दिखें तथा ऐसा बल्ब आपके पीछे की ओर होना चाहिए |
आप पद्मासन या वज्रासन या सुखासन में आँख बंद कर मैडिटेशन शुरू करें | साँस सामान्य रूप से चले इसका ध्यान रखें | कुछ देर मैडिटेशन करने के बाद आँख खोल कर करें | यदि आपको कमरे में रखी वस्तुयें दिखती हैं तो फिर से आँख बंद कर लें | एक बात का ध्यान रखना है कि आपने आँख खोल कर इधर-उधर देखना नहीं है अर्थात आप जब आँख खोलें तो सामान्य रूप से सामने की ओर देखें, घूरना नहीं है या देखने की कोशिश नहीं करनी है |
इस विधि के अनुसार रोजाना शुरुआत में मैडिटेशन आँख बंद करके करनी है और फिर कुछ देर बाद आँख खोल कर करनी है | कुछ दिन या महीने या अभ्यास करने पर आप अँधेरे में मैडिटेशन करने के अभ्यस्त हो जायेंगे | तब आप अँधेरे कमरे में त्राटक करते हुए भी मैडिटेशन कर सकते हैं यानि आपके सामने कुछ नहीं है या आपको कुछ नहीं देख रहा है लेकिन आप आँख खोल कर देख रहे हैं | जिस दिन से ऐसा शुरू होगा तब समझिये कि आप धीरे-धीरे शून्य अवस्था की ओर अग्रसर होने लगेंगे | धन्यवाद |