बीज से पौधा, पौधे से पेड़, पेड़ से फल और फिर फल से बीज बनता है ये आज का विज्ञान भी कहता है और आध्यात्म भी कहता है | सब कुछ वैसे ही हो रहा है जैसे हमारे ब्रह्माण्ड में हो रहा है | सब कुछ घूम कर वापिस आता है | जैसे रात के बाद दिन, गर्मी के बाद सर्दी | प्रकृति, ईश्वर के दूत यानि भगवान् का धरती पर जन्म इसका सबसे बड़ा उदाहरण है | जंगल इसी circular motion के सिद्धांत पर बढ़ते हैं जब तक कि हम उसे बर्बाद नहीं करते | अगर यह सब प्रकृति कर रही है तो इस धरती पर रहते हुए हम भी तो प्रकृति के अनुसार ही चलेंगे या चलना पड़ेगा और अगर ये हो रहा है तो हमारी अच्छी सोच, अच्छे कर्म वापिस क्यों नहीं आएंगे और उनका फल अच्छा क्यों नहीं मिलेगा | इसी के मद्देनजर आध्यात्म में कहा गया है कि ईश्वर का अंश आत्मा रूप में हम सब में विद्यमान है | इसका अर्थ है कि हम ईश्वर के अंश के साथ जन्म लेते हैं और वापिस वह अंश ईश्वर में जाकर मिल जाता है | ये भी तो circular motion है |
आध्यात्म और विज्ञान के इसी सिद्धांत को आगे बढ़ाते हुए तंत्र का जन्म हुआ | तंत्र आध्यात्मिक सिद्धांतों को ही आगे बढ़ाता है | यह पूरी तरह से ‘ध्यान’ पर टिका हुआ है | आध्यात्म में बहुत अन्य तरीके हैं जिनके द्वारा ध्यान लगाया जा सकता है लेकिन तन्त्र में सब कुछ केवल और केवल ध्यान पर टिका है | तंत्र में योग भी सिम्मलित है लेकिन एक अलग तरीके से पिरोया गया है | तभी तो तंत्र को तंत्र-योग कहा जाता है | बाकि ये बात और है कि आज तंत्र किसी ओर रूप में ही हमारे सामने है जबकि आज से तीन-चार सौ साल पहले ऐसा नहीं था |
आध्यात्म के बहुत से सिद्धांत ऐसे हैं जोकि हमें पूर्ण रूप से शारीरिक और मानसिक स्तर पर शुद्ध होने को कहते हैं जबकि तंत्र में ऐसा कुछ नहीं कहा जाता है | तंत्र कहता है कि आप जैसे हैं वैसे ही तंत्र में प्रवेश कर सकते हैं | आपको न कुछ अपनाना है और न कुछ छोड़ना है क्योंकि यह पूर्ण रूप से आत्मिक स्तर पर शुरू होता है और उसी पर टिका रहता है | यह बात और है कि जब आप में परिवर्तन आत्मिक तौर पर आता है तो बहुत कुछ भौतिक तौर पर छूट जाता है लेकिन यह सब अंदर से शुरू हो बाहरी स्तर की ओर बढ़ता है जबकि आध्यात्म में बाहरी तौर से शुरू हो आंतरिक स्तर की ओर बढ़ता है | आज आध्यात्म जो भी और जिस भी रूप में आपके सामने है उस में बहुत कुछ तंत्र की ही देन है |
तंत्र में यह विशेष रूप से कहा गया है कि ध्यान का कोई नियम-कानून नहीं है और जीवन का कुछ छोड़ने या पकड़ने की भी कोई जरूरत नहीं है | असल में इस बात का बहुत गहरा अर्थ है लेकिन ज्यादात्तर लोग बिना जाने इसका गलत मतलब निकाल लेते हैं |
तंत्र की मूल दृष्टि यह है कि पूरा ब्रह्माण्ड एक है | आज का विज्ञान कहता है कि हम सब 99.99 प्रतिशत atom से बने हैं और ब्रह्माण्ड भी ऐसा ही है | इसीलिए तंत्र कहता है कि हमारे शरीर और ब्रह्माण्ड में कोई फर्क नहीं है | हमारे और ईश्वर में कोई फर्क नहीं है | बुराई और अच्छाई में कोई फर्क नहीं है | तभी तो शिव को संहारक और सृजनकर्ता, महान तपस्वी और कामुकता का प्रतीक माना गया है | शिव ने ही अपनी शक्ति को पार्वती का रूप दिया है | इसीलिए तंत्र कहता है कि हर पुरुष में स्त्री और हर स्त्री में पुरुष का एक अंश विद्यमान होता है और यह बात आज का विज्ञान भी मानता है |
आज, आप तंत्र को बहुत ही घिनोने रूप में देख रहे हैं क्योंकि उसी रूप को फैलाया जा रहा है | तंत्र का एक और रूप आज के समय में बहुत प्रचलित हो रहा है – तांत्रिक-सेक्स या सेक्स-योग या सेक्स-तंत्र | यह कहा जाता है कि इस प्रकार का तंत्र विदेश से भारत में आया है जिस में यह बताया जा रहा है कि कैसे तंत्र के जरिये अधिक से अधिक सेक्सुअल सुख प्राप्त किया या दिया जा सकता है | भारत में भी यह शाखा बहुत तेजी से अपने पैर पसार रही है | असल में तंत्र में काम-सूत्र को जोड़ दिया गया है जो इसे घिनोना बना रहा है |
सेक्स, तंत्र का हिस्सा जरूर रहा है लेकिन उसका सेक्सयूअल सुख से कोई लेना-देना नहीं है | तंत्र कभी भी सेक्स को बढ़ावा नहीं देता है | यह तंत्र की एक शाखा है जिसे आज से लगभग आठ सौ साल पहले अभिनव गुप्ता ने ‘तंत्र-लोक’ व् अन्य शस्त्र में लिखा था | अतः यह कहना की यह विदेश से भारत आया है, गलत साबित होता है | हाँ, ये बात सही है कि तंत्र का यह घिनोना रूप विदेश से भारत जरूर आया है |
दोस्तों, तंत्र की इस शाखा में काम-क्रिया करते हुए या उससे पहले या उसके बाद के अनुभव के द्वारा ईश्वर को पाया जा सकता है, ऐसा एक विशिष्ट अनुष्ठान की विधि द्वारा सम्भव हो सकता है | ऐसा इस शाखा में वर्णन है | तंत्र की यह शाखा काम से शुरू हो इसकी आखिरी सीमा को लांघती हुई काम से ऊपर उठ जाती है | लेकिन आज इस शाखा को काम सुख कैसे ज्यादा से ज्यादा पाया जा सकता है ऐसा बता कर प्रसिद्द किया जा रहा है |
प्रेम इस जगत की सबसे महत्वपूर्ण घटना है | यह कहा जाता है कि प्रेम में पत्थर सजीव हो जाता है, ईश्वर खिंचे चले आते हैं | यह सबसे ज्यादा प्रयोग कृष्ण के लिए किया जाता है | असल में वह प्रेम और भक्ति योग के जन्मदाता हैं | वह जब बांसुरी बजाते थे तो हर कोई यहाँ तक कि पशु भी खिंचे चले आते थे | उनका प्रेम भावनात्मक नहीं, भाव से ओत-प्रोत होता था | प्रेम अंदर से बाहर की ओर प्रवाहित होता है | वह यह बांसुरी की धुन सुना कर बताना चाहते थे | जब आप प्रेम से ओत-प्रोत होते हैं तब आप उस मीठे पानी के कुएं की तरह भरे हुए होते हैं जिस में कोई पानी भरता नहीं है बल्कि मीठा पानी पीने के लिए सब खिंचे चले आते हैं | ऐसे ईश्वरिये प्रेम यानि इकतरफा प्रेम जिस में प्रेमी प्रेम करता है और करता ही चला जाता है | वह अपना सब कुछ समर्पित करने को तैयार रहता है लेकिन बदले में कुछ उम्मीद नहीं रखता है | ऐसे प्रेम से ओत-प्रोत पानी का कुआँ कभी खाली नहीं होता बल्कि पानी निकालने के बावजूद भी बढ़ता ही रहता हैं |
तंत्र ऐसे प्रेम को बढ़ावा देता है | तंत्र ऐसे प्रेम से ओत-प्रोत है | ऐसे प्रेम का गलत मतलब निकाल उसे शरीरिक सुख मान कर प्रसिद्द किया गया | तंत्र में प्रेमी या प्रेमिका, प्रेम के उच्च शिखर पर पहुँच यदि सेक्स भी करते हैं तो वह सिर्फ प्रेमी या प्रेमिका को सुख देने के लिए है और जब दोनों ओर से ऐसा होता है तब वह प्रेम ईश्वरिये प्रेम में परिवर्तित हो जाता है | वह ध्यान के उस उच्च शिखर पर पहुँच जाते हैं जहाँ ध्यान और समाधि भी गौण हो जाते हैं |
तंत्र के अनुसार स्त्री और पुरुष दोनों ही हमारे अंदर हैं | तंत्र के अनुसार आपको बाहरी शरीर की केवल तब तक आवश्यकता पड़ती है जब तक आप आत्मिक प्रेम या प्रेम के द्वारा आत्मिक शक्ति को जगा नहीं लेते | जैसे ही प्रेम जाग कर आत्मिक शक्ति प्राप्त कर लेता है तब शरीर गौण हो जाता है |
प्रेम में ध्यान की जरूरत ही नहीं होती | आत्मिक प्रेम स्वयम ही ध्यान है जिससे ईश्वर तक खिंचे चले आते हैं | शरीर की जरूरत केवल उन्हें है जो प्रेम को जगाने में असफल हैं | ध्यान की सब विधि शरीर से शुरू होती हैं और बहुत मेहनत और देर बाद अंतर्मन में पहुँचती है | जब यह अंतर्मन में पहुँचती है तब असल में ध्यान की यात्रा शुरू होती है | प्रेमी ध्यान में बैठते ही ध्यानमग्न हो जाता है उसे किसी विधि की आवश्कता नहीं पड़ती है |
तंत्र की एक शाखा विज्ञान भैरव तंत्र भी है जोकि श्वास, प्रेम और कुण्डलिनी व् अन्य विधि द्वारा ध्यान क्रिया से ओत-प्रोत है | इस में ध्यान करने की 112 विधियों का वर्णन है वह क्यों और किस लिए हैं, हम अगले भाग में बतायेंगे |