प्रेम सम्बन्ध हो या अन्य किसी भी प्रकार का सम्बन्ध हो सब का सम्बन्ध मन से ही होता है | जब तक हमारे मस्तिष्क पर मन का कण्ट्रोल रहेगा तब तक आंतरिक प्रेम का वह अनुभव जो होना चाहिए वह कभी नहीं हो पायेगा | क्योंकि मन कभी स्थिर नहीं रहता है | मन एक विचार पुंज है | पुंज यानि बहुत से विचारों का जमावड़ा | विचार हमें जीने नहीं देते | कभी हम अपने प्रेमी पर फ़िदा हो जाते हैं तो कभी उससे रूठ जाते हैं | कभी उसकी एक बात हमें खुश कर देती है तो कभी वही बात हमें दुखी कर देती है | असल में जब हम माँ के पेट से बाहर आकर इस संसार में जन्म लेते हैं | तब हमारा पहला साँस डर से लिया साँस होता है | लेकिन अगले साँस से हम उस डर को भूल जाते हैं | क्योंकि उस नए जन्में बच्चे को महसूस होता है कि साँस खुद भी लिया जा सकता है | इसके बावजूद वह डर हमेशा के लिए हमारे मन पर अंकित हो जाता है | यहाँ से डर और विचार हमारे जीवन में ऐसा घुसते हैं कि फिर यहाँ से जाने बाद ही इनसे छुटकारा हो पाता है |
विचार और डर, डर और विचार का आपसी ऐसा सम्बन्ध है जो हमारे इन दुन्याबी सम्बन्धों से हमें दूर कर देते हैं | क्योंकि आजकल हम मन से ज्यादा और आत्मा से कम काम लेते हैं | मन और मन के द्वारा पनपी सोच हमारे पर हर समय हावी रहती है | बचपन से अनजाने में शुरू हुआ डर दिन-ब-दिन बढ़ता ही जाता है | इसमें हमारा परिवार, समाज और परिस्थितियाँ सब जिम्मेदार हैं | लेकिन हम भी उतने ही जिम्मेदार हैं जितने ये सब कारण हैं | बचपन से हर बात पर हम को डराया जाता है | बाहर नहीं जाना बाबा आ जाएगा | अँधेरे में मत जाना भूत काट लेगा | ऐसे मत करो, वैसे मत करो, ये मत करो, वो मत करो इत्यादि…..इत्यादि | और बड़े होने पर ये सब उल्ट जाता है | जिन्होंने भी पहले डराया था | अब वो सब कहते हैं मिल जाएंगे कि तुम अँधेरे से इतना क्यों डरते हो | हर साधु चोर-लुटेरा नहीं होता | तुम हिम्मत क्यों नहीं दिखाते, दूसरा तुम्हें खा थोड़े ही जाएगा | तुम हर छोटी बात पर डर क्यों जाते हो इत्यादि…..इत्यादि |
हम सबको डर लगता है लेकिन जिसने भी अपने डर पर काबू पा लिया वह जिन्दगी में कुछ कर जाता है और जो काबू नहीं कर पाया उसे इस जिन्दगी में जूझना पड़ता है | ऐसा नहीं है कि जिस ने डर पर काबू पा लिया | उसे डर नहीं लगता है | उसे भी डर लगता है | उसे एक साँस में डर लगता है लेकिन अगली साँस में वह अपने डर पर काबू पा लेता है | सम्बन्धों में इस डर की बहुत बड़ी भूमिका है | प्रेम में धोखा, शक, मनमुटाव, लड़ाई-झगड़ा सब इस डर का ही नतीजा हैं | डर जब हर जगह से हट जाता है तब वह प्रेम पर हावी हो जाता है | और वह दो ही स्थिति में हटता है |
पहला तब, जब हमें ऐसा महसूस होता है कि हमारे आस-पास जो भी परिस्थितियाँ हैं वह हमारे काबू से बाहर हैं | हम चाह कर भी किसी परिस्थिति को हटा नहीं सकते | तब हमें डर लगने लगता है कि कहीं हमारा प्रेम भी हमें धोखा न दे दे | बस फिर शुरू होता है मन का खेल | मन हमें धोखा और शक का अनुभव कराता है | और उससे पनपता है मनमुटाव और लड़ाई-झगड़ा | मन के हावी होने पर हम अपनी आँखों से कम और मन के दर्पण यानि शीशा यानि mirror से देखने लगते हैं | और दर्पण हमेशा सीधा लिखा हुआ, उल्टा दिखाता है | इसीलिए कहा जाता है कि अपने मन पर काबू रखो | उसे इतनी ढील मत दो कि वह आपके मस्तिष्क को काबू कर ले | क्योंकि ऐसा होते ही आपको सब तरफ सीधा भी उल्टा दिखने लगेगा |
दूसरा तब, जब सब कुछ हमारे कण्ट्रोल में होता है | तब हम सब पर हक जमाने के साथ-साथ अपने प्यार पर भी हक जमाने लगते हैं | तब हमें लगता है कि जब सब हमारे कहे अनुसार चल रहे हैं तब हमारा प्यार भी हमारे अनुसार चलना चाहिए | यहाँ भी हम गलत होते हैं क्योंकि जब आप किसी पर जोर-जबरदस्ती कर रहे होते हैं या बेफिजूल अपना हक़ दिखा रहे होते हैं | तब भी आपके अंदर कहीं न कहीं डर ही होता है | वह डर ही आपको दूसरे पर जुल्म करने को उकसाता है वरना आप किसी पर जुल्म क्यों करना चाहेंगे | प्रेम आप किसी से जबरदस्ती नहीं करवा सकते हैं |
दोस्तों, हमारी पांच ज्ञानेंद्रिया हैं : आँख, कान, नाक, जीभ और त्वचा | आँख से हम देख सकते हैं | लेकिन हम तभी देख सकते हैं जब हमारा ध्यान देखने पर होता है | अगर हम ध्यान जोकि आत्मा से कण्ट्रोल किया जाता है | उससे देखते हैं तब हमें सीधा, सीधा और उल्टा, उल्टा दिखता है | उस समय मन या तो शांत होता है या फिर वह किसी भी बात पर इतना ज्यादा केन्द्रित होता है कि हमें मन और आत्मा दोनों में फर्क ही महसूस नहीं होता है | जैसे आपने कई लोगों को देखा होगा कि जब वह गहरी नींद में होते हैं तब उनकी आँख की पलक थोड़ी उठ जाती है और कुछ की तो लगभग आधी तक खुल जाती है | उन्हें देख कर ऐसा लगता है जैसे वह देख रहे हैं | जबकि वह गहरी नींद में सो रहे होते हैं | इससे आपको बात समझ में आएगी कि आँख होने से या आँख से देखने की ताकत होने से कुछ नहीं होता | जब तक हमारा ध्यान उस देखने पर केन्द्रित नहीं होता तब तक हम देख नहीं सकते हैं | जैसे वह सोता हुआ इंसान जिसकी आधी आँख तो खुली है लेकिन उसका ध्यान बाहर देखने की ओर नहीं है | इस समय उसका ध्यान अन्तर्मुखी है | वह आधी खुली आँखों से कुछ नहीं देख पा रहा है | आप बाजार में घूम रहे हों और अचानक आपको खबर मिले कि आपके घर में कोई बहुत बड़ी परेशानी हो गई है या आपको कोई बहुत बड़ी ख़ुशी मिल जाए तब आपको बाजार की रौनक या बाजार में घूमने वाले अपने जानकार लोग दिखने बंद हो जाएंगे | उस समय आपका ध्यान उस ख़ुशी या दुःख या परेशानी की ओर हो जाता है | आप जल्दी से जल्दी घर पहुँचना चाहते हैं | अभी कुछ क्षण पहले तक बाजार और वहाँ की रौनक ही आपके लिए सब कुछ थी | लेकिन अब वह सब कुछ होते हुए भी आपको कुछ नहीं दिख रहा है | क्योंकि आपका ध्यान किसी ओर तरफ मुड़ गया है | ऐसा ही कुछ हमारी बाकि ज्ञानेन्द्रियों के साथ भी होता है |
दोस्तों, उपरोक्त बातों से सिद्ध होता है कि आँख के देखने, कान से सुनने, नाक से सूंघने, जीभ से स्वाद चखने और त्वचा से स्पर्श की ताकत महसूस करने से कुछ नहीं होता है | जब तक हमारा ध्यान इसे हमारे मन या मस्तिष्क तक नहीं पहुँचाता है तब तक हमें सब कुछ महसूस होने के बावजूद कुछ भी महसूस नहीं होता है | और अगर हम यही ध्यान अपने प्रेमी या प्रेम पर केन्द्रित कर दें तो बाकि सब बातें गौण हो जाएंगी | वह सब हो कर भी नहीं होगा | जैसे मीरा और राधा का प्रेम था | वह प्रेम अगर अमर हो सकता है | वह प्रेम एक सच्चा प्रेम हो सकता है तो आपका क्यों नहीं हो सकता |